आखिर बिनब्याही माँ बनी राजकन्या के अपराध पर दंड देने के लिए लिए सुनवाई का दिन आया। शाही महल में लगी अदालत में राज्य के तमाम आम-ओ-ख़ास उमड़ पड़े। दरबार में तिल रखने की जगह न बची। मुज़रिम राजकन्या कक्ष में बने एक कटघरे में सिर झुकाये आ बैठी।
मुख्य आसन पर युवराज विराजमान था। उसके दोनों ओर राज्य के तमाम न्यायाधीश मुख्य न्यायाधिपति के साथ बिराजे थे। महाराज का हुकुम था कि उनकी बेटी पर बिना किसी पक्षपात के मुकदमा चले और उसे राज्य के कानून के मुताबिक ही दंड मिले।
किन्तु ऐसा कह कर वे बैठे न रह सके। उन्हें उनकी शैया पर ही शयनकक्ष में लिटाया गया। लगता था कि अब ज़्यादा दिन बचेंगे नहीं।
युवराज ने इच्छा जाहिर की, कि राजकुमारी का फ़ैसला महाराज स्वयं करें। किन्तु ऐसा नहीं हुआ। युवराज को महाराज का कहा मानने के लिए न्याय के तख़्त पर आसीन होना पड़ा।
इस विराट जनसभा में शायद सबसे उदास दिल युवराज के सीने में ही धड़क रहा था, और शायद सबसे खुश था युवराज का पिता ठाकुर जो चुपचाप,युवराज को बिना बताये यहाँ चला आया था और अब दरबारियों के झुण्ड में अपने नसीब के खुल जाने का सपना लिए पीछे बैठा था।
आरंभिक औपचारिकताओं के बाद माननीय मुख्य न्यायाधिपति का स्वर गूंजा -
-"मुल्ज़िमा खड़ी हो.... "
न जाने किन खयालों में खोई राजकुमारी अपने स्थान से उठ कर दरबार से मुखातिब हुई। न्यायाधिपति ने कहा-
-"सम्माननीय राजकुमारी, यह महान दरबार तुम पर आक्षेप लगा रहा है कि विवाह के पवित्र बंधन में बंधे बिना ही तुमने मातृत्व का बोझ उठा कर राज्य की महान परम्पराओं और मान्यताओं के साथ खिलवाड़ कर कानून को विवश किया है कि तुम्हें दंड दे, जो कि इस अपराध में मृत्युदंड ही है। यद्यपि तुम्हें ये सज़ा कार्यवाहक सम्राट युवराज द्वारा ही सुनाई जाएगी, तथापि तुम्हें अपनी ओर से कुछ कहना है तो कहो?"
मुख्य आसन पर युवराज विराजमान था। उसके दोनों ओर राज्य के तमाम न्यायाधीश मुख्य न्यायाधिपति के साथ बिराजे थे। महाराज का हुकुम था कि उनकी बेटी पर बिना किसी पक्षपात के मुकदमा चले और उसे राज्य के कानून के मुताबिक ही दंड मिले।
किन्तु ऐसा कह कर वे बैठे न रह सके। उन्हें उनकी शैया पर ही शयनकक्ष में लिटाया गया। लगता था कि अब ज़्यादा दिन बचेंगे नहीं।
युवराज ने इच्छा जाहिर की, कि राजकुमारी का फ़ैसला महाराज स्वयं करें। किन्तु ऐसा नहीं हुआ। युवराज को महाराज का कहा मानने के लिए न्याय के तख़्त पर आसीन होना पड़ा।
इस विराट जनसभा में शायद सबसे उदास दिल युवराज के सीने में ही धड़क रहा था, और शायद सबसे खुश था युवराज का पिता ठाकुर जो चुपचाप,युवराज को बिना बताये यहाँ चला आया था और अब दरबारियों के झुण्ड में अपने नसीब के खुल जाने का सपना लिए पीछे बैठा था।
आरंभिक औपचारिकताओं के बाद माननीय मुख्य न्यायाधिपति का स्वर गूंजा -
-"मुल्ज़िमा खड़ी हो.... "
न जाने किन खयालों में खोई राजकुमारी अपने स्थान से उठ कर दरबार से मुखातिब हुई। न्यायाधिपति ने कहा-
-"सम्माननीय राजकुमारी, यह महान दरबार तुम पर आक्षेप लगा रहा है कि विवाह के पवित्र बंधन में बंधे बिना ही तुमने मातृत्व का बोझ उठा कर राज्य की महान परम्पराओं और मान्यताओं के साथ खिलवाड़ कर कानून को विवश किया है कि तुम्हें दंड दे, जो कि इस अपराध में मृत्युदंड ही है। यद्यपि तुम्हें ये सज़ा कार्यवाहक सम्राट युवराज द्वारा ही सुनाई जाएगी, तथापि तुम्हें अपनी ओर से कुछ कहना है तो कहो?"
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