युवराज को बेचैनी से पहलू बदलते सारे दरबार ने देखा। दूरी न होती तो शायद युवराज के माथे पर आये पसीने की बूँदें भी लोग देखते। न्याय का यह पहला ही मुकदमा इतना विचित्र था कि मुल्ज़िमा और कार्यवाहक सम्राट दोनों की आँखें नम थीं। भीगी आँखों से ही युवराज के होठ कुछ कहने के लिए खुले कि होठों की जुम्बिश से पहले ही न्यायाधिपति बोल पड़े-" नहीं, यहाँ से नहीं ...युवराज सज़ा सुनाने के लिए सम्राट का आसन ग्रहण करें।"
यह सुनते ही युवराज के सीने पर एक थरथराहट भरी लहर गुज़री, और ठीक ऐसा ही दरबार में सभासदों के बीच बैठे उसके पिता, ठाकुर के साथ भी हुआ।
-"पर युवराज का अभी राज्याभिषेक नहीं हुआ है, ये वहां कैसे बैठ सकता है?".... ठाकुर खड़े होकर अकस्मात बोल पड़े। उनका और युवराज का चेहरा भरे दरबार की अचंभित पैनी निगाहों से भयभीत हो, पीला पड़ गया।
पर वहां बैठना ज़रूरी था। सज़ा की कीमत तभी थी जब वह सिंहासन से सुनाई जाये। चारों ओर से घूरती निगाहें तुरंत शक़ करने लग जातीं यदि वहां बैठने में देर लगती।
युवराज सिंहासन की ओर बढ़ा ओर उस पर सहजता से बैठने का भ्रम देते हुए बोल पड़ा-"मुल्ज़िमा, महाराज की आज्ञा और राज्य के आदेश से मुझे अपने दायित्व का निर्वहन करना ही होगा, जिससे मैं कतई पीछे नहीं हटूंगा। मेरी बात ध्यान से सुनो-राज्य के प्राचीनकाल से चले आ रहे क़ानून के अन्तर्गत तुम्हें मृत्युदंड मिलना अवश्यम्भावी है, किन्तु इस स्थिति से बचने का केवल एक ही रास्ता भी है कि तुम अपनी संतान के होने वाले पिता का नाम उजागर कर दो, बता दो कि तुम्हारे शरीर से इस तरह खेल जाने वाला कौन है ?"
दरबार में सन्नाटा पसर गया। एक ऐसी ख़ामोशी व्याप गयी, जिसमें दिलों की धड़कनें भी साफ़ सुनी जा सकें।
आखों में नफरत के शोले लिए राजकुमारी ने बदन की हलकी जुम्बिश के साथ अपनी अंगुली सामने खड़े युवराज की ओर बढ़ा दी , बोली-" तुम ! तुम हो वो आदमी।"
न्याय के सर्वोच्च आसन के समीप खड़े असहाय, हताश, युवराज के चेहरे पर सहसा मुर्दनी छा गयी। धरती की कौन सी ताकत अब उसे बचा सकती थी ?
यह सुनते ही युवराज के सीने पर एक थरथराहट भरी लहर गुज़री, और ठीक ऐसा ही दरबार में सभासदों के बीच बैठे उसके पिता, ठाकुर के साथ भी हुआ।
-"पर युवराज का अभी राज्याभिषेक नहीं हुआ है, ये वहां कैसे बैठ सकता है?".... ठाकुर खड़े होकर अकस्मात बोल पड़े। उनका और युवराज का चेहरा भरे दरबार की अचंभित पैनी निगाहों से भयभीत हो, पीला पड़ गया।
पर वहां बैठना ज़रूरी था। सज़ा की कीमत तभी थी जब वह सिंहासन से सुनाई जाये। चारों ओर से घूरती निगाहें तुरंत शक़ करने लग जातीं यदि वहां बैठने में देर लगती।
युवराज सिंहासन की ओर बढ़ा ओर उस पर सहजता से बैठने का भ्रम देते हुए बोल पड़ा-"मुल्ज़िमा, महाराज की आज्ञा और राज्य के आदेश से मुझे अपने दायित्व का निर्वहन करना ही होगा, जिससे मैं कतई पीछे नहीं हटूंगा। मेरी बात ध्यान से सुनो-राज्य के प्राचीनकाल से चले आ रहे क़ानून के अन्तर्गत तुम्हें मृत्युदंड मिलना अवश्यम्भावी है, किन्तु इस स्थिति से बचने का केवल एक ही रास्ता भी है कि तुम अपनी संतान के होने वाले पिता का नाम उजागर कर दो, बता दो कि तुम्हारे शरीर से इस तरह खेल जाने वाला कौन है ?"
दरबार में सन्नाटा पसर गया। एक ऐसी ख़ामोशी व्याप गयी, जिसमें दिलों की धड़कनें भी साफ़ सुनी जा सकें।
आखों में नफरत के शोले लिए राजकुमारी ने बदन की हलकी जुम्बिश के साथ अपनी अंगुली सामने खड़े युवराज की ओर बढ़ा दी , बोली-" तुम ! तुम हो वो आदमी।"
न्याय के सर्वोच्च आसन के समीप खड़े असहाय, हताश, युवराज के चेहरे पर सहसा मुर्दनी छा गयी। धरती की कौन सी ताकत अब उसे बचा सकती थी ?
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