रविवार, 5 मार्च 2017

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चंद दिनों बाद राजधानी की आबोहवा में उल्लास और गहमा-गहमी घुल गए।  राज्य के नए युवा शासक के आ जाने से प्रजा के साथ-साथ महाराज भी फूले न समाते थे। बेहद सुन्दर-सुदर्शन युवा शासक ने पलक झपकते ही सभी का दिल जीत लिया। सेना, दरबारियों और स्वयं महाराज द्वारा मिले इस अभूतपूर्व सम्मान व आत्मीयता ने युवक के मन के सभी संशय और डर ओझल कर दिए।
किन्तु इसी विराट महल के एक अन्य वीरान से कक्ष का नज़ारा कुछ और ही था। कक्ष के एक सुनसान से झरोखे में महाराज की अपनी पुत्री, राज्य की किशोर-वया राजकुमारी आँखों में विराट शून्य लिए उदास खड़ी थी। उसकी लाल और सूजी हुई आँखें आंसुओं से अब भी तर थीं। वह कक्ष में नितांत अकेली थी। वह मन ही मन बुदबुदाते हुए मानो स्वयं से ही वार्तालाप में तल्लीन थी।
-"वो दुष्ट लड़का चला गया। वह राज्य ही छोड़ गया, ओह, यकीन नहीं होता। मुझे खुद ये इल्म नहीं था कि वह इस तरह जायेगा, पर यही सच है। मैंने उसे मन के अंतिम छोर से प्यार किया। मैं जानती थी कि महाराज उस से मेरा विवाह कभी नहीं करेंगे, फिर भी मैं उसे चाहने का साहस कर बैठी। उसकी युवा मासूमियत आखिर मुझे धोखा दे गयी। ... पर अब मुझे उस से नफरत है। अब मैं मन के उसी अंतिम छोर से घृणा करती हूँ उससे। ओह, उस जवान खूबसूरत ज़िस्म के मोह में पड़ कर मैं बरबाद हो गयी। अब मेरा क्या होगा? मैं जीते जी मर गयी...मैं पागल हो जाउंगी।"
कुछ महीने और गुज़र गए। एक ओर तनहाई और अंधेरों में गुम राजकन्या और दूसरी ओर अपनी दयालुता, विवेक और बुद्धिमानी भरे फैसलों से दिनों दिन लोकप्रिय होते युवराज। शासन और सत्ता स्वयं खिंची चली आई। बूढ़े महाराज युवराज की बुद्धिमत्ता से कायल होकर अपना सब कुछ उसके अधिकार में सौंपते जाते थे और सिंहासन से विरक्त होते जाते थे।वे परम संतुष्ट और सुखी थे।                          

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